Insha Ji Utho by Ibne Insha: Ghazal(in Hindi)

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ग़ज़ल
     इंशा जी उठो अब कूच करो

इस शहर में जी को लगाना क्या,
     वह़शी को सुकूं से क्या मत़लब
जोगी का नगर में ठिकाना क्या.

     इस दिल के दरीदा दामन को
देखो तो सही सोचो तो सही,
     जिस झोली में सौ छेद हुए
उस झोली का फैलाना क्या.

     शब बीती चांद भी डूब चला
ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े में,
     क्यों देर गए घर आए हो
सजनी से करोगे बहाना क्या.

     फिर हिजर की लंबी रात मियां
संजोग की तो यही एक घड़ी,
     जो दिल में है लब पर आने दो
शरमाना क्या घबराना क्या.

     उस रोज़ जो उनको देखा है
अब ख़्वाब का आलम लगता है,
     उस रोज़ जो उन से बात हुई
वह बात भी थी अफ़साना क्या.

     उस ह़ुस्न के सच्चे मोती को
हम देख सके पर छू ना सके,
     जिसे देख सके पर छू न सके
वह दौलत क्या वह ख़ज़ाना क्या.

     उसको भी जला दुखते हुए मन
एक शोला लाल भभूका बन,
     यूं आंसू बन बह जाना क्या

यूं मिट्टी में मिल जाना क्या.

     रहते हो जो हम से दूर बहुत
मजबूर हो तुम मजबूर बहुत,
     हम समझो का समझना क्या
हम बहलो का बहलाना क्या.

     जब शहर के लोग ना रास्ता दें
क्यों बन में जा बिसराम करें,
     दीवानों की सी ना बात करें
तो और करें दीवाना क्या.

             इब्ने इंशा
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मुश्किल अल्फ़ाज़:
     ☆ दरीदा --- फटा, खस्ता हाल.

     ☆ शब --- रात.
     ☆ हिजर --- जुदाई.
     ☆ संजोग --- मिलन.
     ☆ लब --- होंठ.
     ☆ आलम --- जहां, दुनिया.
     ☆ अफसाना --- ख़्याल, किस्सा, वाक्या.
     ☆ हुस्न --- खूबसूरती.
     ☆ बन --- जंगल.
     ☆ बिसराम --- आराम.
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